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गर्मियों की शाम। लोकेश शर्मा।

You can download this poem for free by just clicking the download link below the poem. धीरे-धीरे ढलती धूप का पंख पसारना है, सांझ के आँचल में सूरज का सिमट जाना है। पेड की टहनी पे चिड़ियों की आख़िरी पुकार है, जैसे दिन भर की कहानियाँ उनके पास बेशुमार है। बचपन की गलियों से फिर वो हवा आती है, जिसमें आम की मिठास और मिट्टी की दवा है। छुट्टियों के पहले दिन सी वो ख़ुशबू उड़ती है, जब हर दिन खेल का नाम और रात - तारे गिनती थी। नानी के घर की देहरी पर शाम के साए गहरे थे, जहाँ हर कोने में दबे पुराने किस्सो के बसेरे थे। आँगन पर बैठ, हम सब भरपूर बतियाते थे, कूलर पंखे की हवा खाते दिन में सो जाते थे। गिल्ली-डंडा, छुपन-छुपाई, गलियों में गूंजता शोर था, ठंडी चुस्की में छुपा वो दोपहर का अलसाया जोर था। कभी कुल्फ़ी वाला घंटी बजाता, तो मन ललचाता था, हर रंग के गोले में जैसे इक नया स्वाद आ जाता था। फिर जब ढलती थी शाम, खेल कर लौट आते थे, छत पर बिछती थी चटाई, सब साथ साथ सोते थे। दादी की कहानियाँ सुनकर, ख्यालों में खों जाते थे, और बचपन की वो नींद, जो सुकून से सो जाते थे। ये गर्मियों की शामें, सिर्फ़ एक मौसम नहीं है, ...
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न जाने क्यों तुमने इसे प्यार करने की ख़्वाहिश की है।। लोकेश शर्मा।

ये दिल शीशे की तरह टूट कर बिखरा हुआ था,  न जाने क्यों तुमने इसे समेटने की कोशिश की है। एक एक टूकड़े को हाथों से उठाकर चोट खाई,  न जाने क्यों तुमने इसे जोड़ने की एहतिमाम की है। इसमें अब पहले जैसी धड़कन नहीं होगी कभी, न जाने क्यों तुमने इसे धड़काने की गुज़ारिश की है। ये जो धड़क भी जाये तो प्यार ना होगा इससे, न जाने क्यों तुमने इसे प्यार करने की ख़्वाहिश की है। ~ लोकेश शर्मा।

लो चले हम अपने घर...। लोकेश शर्मा।

  लो चले हम अपने घर, लेके हाथ मे बस्ता भर... यादों की एक महफिल हैं, खट्टे मीठे जिसमें पल हैं... और है थोड़ा दुःख जाने का  है थोड़ा सुख घर आने का... ये दोस्ती, समझ, दुनियादारी, ये जो कुछ सीखे सबक भारी... बांध के सबको गांठ लगा कर, बस्ते के पोटली साथ लगा कर... लो चले हम अपने घर, लेके हाथ मे बस्ता भर... यहां से तो फिलहाल चल देंगे, ना जाने घर कितना रुक लेंगे... जीवन की चुनौती फिर आनी है, पल मे ही घर से फिर रवानी है... किसका साथ आगे होना है, किसका साथ पीछे छूटना है... फिर मिले ना मिले कौन जाने, मिलने की फिर भी आस माने... लो चले हम अपने घर, लेके हाथ मे बस्ता भर... ~लोकेश शर्मा। 

सुनो लडकियों, ये जो तुम हो, तो... लोकेश शर्मा।

सुनो लडकियों... ये जो तुम हो, तो तोड़ लाते है चांद सितारों को भी,  नही तो चांद सितारों तक हम आज भी जाते नही... सुख, दुख, प्यार का भाव, है सभी बात तुम्हीं से,  नही तो इस दुनिया पर दिल की दुनिया बनाते कहीं... खुशी, मेले, त्यौहार और व्रत, है सभी बने तुम्हीं से,  नही तो जिंदगी को जैसे तैसे हम जी पाते कभी... ये जो तुम हो, तो साथ है सदा किसी रूप में तुम्हारा  नही तो हम इतनी हिम्मत आज भी लाते नहीं... तुम हो, हैं हवाओं में खुशबू और प्यार का एहसास,  नदी, पहाड़, फूलों की खूबसूरती और सूरज प्रकाश,  ये दुनिया इसके रंग और रौनक, है रोशन तुम्हीं से,  नही तो ज्ञान ये हमको क्या आज भी आते कभी... ये जो तुम हो, तो मैं और मेरा धन्यवाद हैं तुमको, नही तो, ना सृष्टि रचना और अस्तित्व हमारा कहीं... ~लोकेश शर्मा।

मुझे मेरी जिंदगी हर रोज चाहिए। लोकेश शर्मा।

(माना कीं हम रोज नहीं मिलते, लेकिन जब भी मिलते हैं, मुझे मेरी जिंदगी मिल जाती हैं...) मुझे मेरी जिंदगी हर रोज चाहिए...   ये मेरी तरफ उठती निगाहें, जैसे सुबह की हो पहली किरण... ये हसना तुम्हारा, ये मीठी बातें, जैसे पहाड़ो से झरनों की हो जल तरंग... कभी चुप हो जाना और शर्मा जाना, गालो पर शाम की लालिमा आना... यूँ तेरा जुल्फों को बिखरा देना, दिन को पलभर में रात बना देना... ये धूप, ये छाव और ये रंगीन बहार, कुछ और नहीं है, सब है तेरे मिजाज़... ये रात, ये सूरज, ये चाँद और चाँदनी, कुछ और नहीं है, सब है तेरे प्रभाग... ये हवा, ये बारिश, फूल और खुशबु, क्या कुछ नहीं है जो तुझमें समाया... ये मौसम, ये धरती, आसमाँ खूब नहीं,  कि रब ने तुझे क्या बखूब है बनाया... सबके पास दुनिया खूब है, सही है, पर मुझे मेरी दुनिया बखूब चाहिए... मेरा तुम्हारा साथ ये हीं है, वहीं हैं, जो हर रोज हर घड़ी हर पल चाहिए... इस दुनिया मे अस्तित्व नहीं है मेरा,  जीने को तो यूहीं जिए जा रहा हूँ मैं... मेरी दुनिया मेरी जिंदगी सब तुम हो,  सच तुमसे मिलने को मरा जा रहा हूँ मैं... मैं रेगिस्तान में भटकता हूँ, मृत हूँ, ...

जी-भर कर अभी देखा नहीं हैं। लोकेश शर्मा।

दीदार भी हैं तो सिर्फ तेरा ही, इन आंखों का कोई और ख़ुदा नहीं हैं।  यूँ तो कई बार तुझको देखा हैं मैंने,  फिर भी जी-भर कर अभी देखा नहीं हैं। तू साथ हैं मेरे मेरी जिन्दगी में,  फिर मुझे किसी चीज़ की कमी नहीं हैं।  मैं चाहूँ तुझे कितना भी पा लूँ, तू वो प्यास हैं जो कभी बुझती नहीं हैं। ~ लोकेश शर्मा। 

आपका जन्मदिन है, क्या कुछ मैं करूँ? लोकेश शर्मा।

मैं डूबा था सोच में ना जाने कब से, क्या कुछ और मांगू अब अपने रब से? ये रंग बिरंगी शाम है ये टिमटिमाते तारे, क्यूँ ना जाने फिर भी लगते है फिके सारे? दीपक रोशन जला ऊँ या चांद को बुलाऊँ, किस तरह आज शाम महफ़िल को सजाऊँ? ये दिन जो आज है मेरे बहुत ही खास है, कैसे शुक्रिया करू  कि आप मेरे पास है? तोहफा दिल दे दूँ, खुशियो का दामन भरूँ, आपका जन्मदिन है क्या कुछ मैं करूँ? ~लोकेश शर्मा।