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गर्मियों की शाम। लोकेश शर्मा।

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धीरे-धीरे ढलती धूप का पंख पसारना है,
सांझ के आँचल में सूरज का सिमट जाना है।
पेड की टहनी पे चिड़ियों की आख़िरी पुकार है,
जैसे दिन भर की कहानियाँ उनके पास बेशुमार है।


बचपन की गलियों से फिर वो हवा आती है,
जिसमें आम की मिठास और मिट्टी की दवा है।
छुट्टियों के पहले दिन सी वो ख़ुशबू उड़ती है,
जब हर दिन खेल का नाम और रात - तारे गिनती थी।


नानी के घर की देहरी पर शाम के साए गहरे थे,
जहाँ हर कोने में दबे पुराने किस्सो के बसेरे थे।

आँगन पर बैठ, हम सब भरपूर बतियाते थे,

कूलर पंखे की हवा खाते दिन में सो जाते थे।


गिल्ली-डंडा, छुपन-छुपाई, गलियों में गूंजता शोर था,
ठंडी चुस्की में छुपा वो दोपहर का अलसाया जोर था।
कभी कुल्फ़ी वाला घंटी बजाता, तो मन ललचाता था,
हर रंग के गोले में जैसे इक नया स्वाद आ जाता था।


फिर जब ढलती थी शाम, खेल कर लौट आते थे,

छत पर बिछती थी चटाई, सब साथ साथ सोते थे।

दादी की कहानियाँ सुनकर, ख्यालों में खों जाते थे,

और बचपन की वो नींद, जो सुकून से सो जाते थे।


ये गर्मियों की शामें, सिर्फ़ एक मौसम नहीं है,
अमिट स्याही से लिखी जीवन की कई यादें है।
जो हर साल एक ख़ामोश सी दस्तक दे जाती है,

कि यादों के ऊपर जमी हुई धूल, धुल जाती है।


~ लोकेश शर्मा।



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