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पीयूष मिश्रा की कुछ कविताएं। पीयूष मिश्रा।

Includes :-


°One Night Stand...

खत्म हो चुकी है जान, रात ये करार की,
वो देख रोशनी ने इल्तिज़ा ये बार बार की।
जो रात थी तो बात थी, जो रात ही चली गयी,
तो बात भी वो रात ही के साथ ही चली गयी।
तलाश भी नही रही, सवेरे मकाम की,
अंधेरे के निशान की, अंधेरे के गुमान की।
याद है तो बस मुझे, वो होंठ की चुभन तेरी,
याद है तो बस मुझे, वो सांस की छुअन तेरी।
वो सिसकियों के दौर की महक ये बची हुई,
वो और, और, और की, देहक ये बची हुई।
ये ठीक ही हुआ जो जान, भूल से मेरी नजर,
मुआयना तेरी शक्ल का कर न पाई रात भर।
जो कर जो पाती रात भर, तो दूसरी ही बात थी,
हर एक दिन में फिर तो बस वही पुरानी रात थी।
जो चाहता था मैं नही, न चाहता हूँ आज भी,
करार एक रात का निभाता हूँ आज भी।
करार एक रात का भी जो निभा ले जाना,
तो जिंदगी बनी रहे या न रहे, किसे है ग़म।
यकीन से हूँ बोलता ये ही करार-ऐ-जिंदगी,
यकीन से हूँ बोलता ये ही करार-ऐ-बंदगी।
और जो बंदगी है करार, तो सवाल फिर उठे,
की और क्या, और क्या, ये ही ख्याल फिर उठे।
तो देखे इस सवाल का, देखे इस ख्याल का,
कोई जवाब ढूंढ करके ला सके कमाल का।
तरीका एक ही है जान, रात के किसी पहर,
जो तेरे घर के उस तरफ, बजे कोई बड़ा गजर।
तो आना-जाना आज फिर उसी पुरानी राह से,
मिले थे दोनो कल जहाँ अंधेरे की सलाह से।
करेंगे फिर हिसाब सांस-धड़कनो के साथ का,
लिखेंगे फिर करार और एक अंधेरी रात का।


°क्या नखरा है यार...

पहले बोले कि बात करो
जो बात करी तो बिगड़ गए...
‘तो क्यों बोला कि बात करो’
‘मैंने कब बोला’ मुकर गए...
फिर खुद ही बोले ‘साथ चलो’
जो साथ चला तो पिछड़ गए...
फिर थक के बोले ‘रुको जरा’
मैं ‘अच्छा’ बोला अकड़ गए...
ये ‘अच्छा’ क्यों हो बोल रहे
‘तो क्या बोलूं’ वो झगड़ गए...
मैं हुआ परेशां ‘यार चलें’
वो वहीं पे गड़ के ठहर गए...
मैं झल्लाकर के भाग लिया
वो चीख पड़े कि ‘किधर गए...’
मैं बाल नोंच के वहीं मरा
तो बोले ‘साले गुजर गए...?’


°कुछ इश्क किया कुछ काम किया।

वो काम भला क्या काम हुआ
जिस काम का बोझा सर से हो
वो इश्क भला क्या इश्क हुआ
जिस इश्क का चर्चा घर पे हो...
वो काम भला क्या काम हुआ
जो मटर सरीखा हल्का हो
वो इश्क भला क्या इश्क हुआ
जिसमें ना दूर तहलका हो...
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें ना जान रगड़ती हो
वो इश्क भला क्या इश्क हुआ
जिसमें ना बात बिगड़ती हो...
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें साला दिल रो जाए
वो इश्क भला क्या इश्क हुआ
जो आसानी से हो जाए...
वो काम भला क्या काम हुआ
जो मजा नहीं दे ह्विस्की का
वो इश्क भला क्या इश्क हुआ
जिसमें ना मौका सिसकी का...
वो काम भला क्या काम हुआ
जिसकी ना शक्ल ‘इबादत’ हो
वो इश्क भला क्या इश्क हुआ
जिसकी दरकार ‘इजाजत’ हो...
वो काम भला क्या काम हुआ
जो कहे ‘घूम और ठग ले बे’
वो इश्क भला क्या इश्का हुआ
जो कहे ‘चूम और भग ले बे’...


°कौन किसको क्या पता...

आज तुम ना आओगी
कल मैं ही ना मिल पाऊंगा
फिर बाद परसों आ गईं
तो कौन किसको क्या पता...
आज छू ना पाओगी
कल मैं सिमट-सा जाऊंगा
फिर बाद परसों छू लिया
तो कौन किसको क्या पता...
आज की बातों को कल पे
छोड़कर तुम खुश रहो
फिर बाद बातें ना रहेंगी
कौन किसको क्या पता..
क्या सिला तुम सोचतीं
या क्या गिला तुम सोचतीं
क्या दिल में ला तुम सोचती हो
कौन किसको क्या पता...


°अरे, जाना कहां है....?

उस घर से हमको चिढ़ थी जिस घर
हरदम हमें आराम मिला...
उस राह से हमको घिन थी जिस पर
हरदम हमें सलाम मिला...
उस भरे मदरसे से थक बैठे
हरदम जहां इनाम मिला...
उस दुकां पे जाना भूल गए
जिस पे सामां बिन दाम मिला...
हम नहीं हाथ को मिला सके
जब मुस्काता शैतान मिला...
और खुलेआम यूं झूम उठे
जब पहला वो इन्सान मिला...
फिर आज तलक ना समझ सके
कि क्योंकर आखिर उसी रोज
वो शहर छोड़ के जाने का
हम को रूखा ऐलान मिला...


~पीयूष मिश्रा।

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