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टूटते रिश्ते टूटते सपने। उत्कर्ष जैन।


इन बिखरते बिगड़ते रिश्तों के दरमियान, 

एक आशियां मैं बसाना चाहता था।


उसमे एक उम्मीद थी, 

कि ढांचा एक दिन घर बनेगा।

और प्यारा सा कुटुम्ब फिर, 

उसमे सदा निवास करेगा।


उसकी नींव में एक विश्वास था, 

पानी सा बहाव था।

मिट्टी में प्यार था और 

पत्थर सा संकल्प था।


इमारत पर इमारत चढ़ती गयी, 

आकांक्षाएँ मेरी बढ़ती गयी।

सोचा था अब नजदीक है पल, 

साथ रहेंगे फिर हर प्रहर।


पर क्या पता था 

कि ऊंचाई तक पहुंचने पर, 

कुछ रिश्ते छूट जायेंगे।

जिनका मतलब पूरा हो गया, 

वो यूँ किनारा कर जायेंगे और 

अंखियों के वो कुटुंब के सपने, 

अधूरे ही रह जायेंगे।


मतलब का ये संसार है, 

काम है तो परिवार है।

रिश्तों की परवाह रही नहीं, 

स्वयं के सिवा कोई दिखता नहीं।


यही तो वो सच्चाई थी, 

जो मैंने देखी नहीं।

बस सपना था एक कुटुंब का मेरा, 

फिलहाल वो पूरा हुआ नहीं।


माना इस बार मैं विफल रहा, 

पर प्रयास अनवरत रहेगा।

आशियाने का वो स्वप्न मेरा, 

पूरा अवश्य होकर रहेगा।


- उत्कर्ष जैन।

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