Skip to main content

क्या ये मेरी कल्पना है... या मेरा पागलपन। उत्कर्ष जैन।


आँखे बंद करने पर एहसास तुम्हारा होता है,
धूप में आगे चलने पर साया तुम्हारा दिखता है। 
क्या ये मेरी कल्पना है... या मेरा पागलपन?

बारिश हो फिर भी भीगा सा महसूस करता हूँ,
तेरे चेहरे के नूर को हर तरफ़ में देखा करता हूँ।
क्या ये मेरी कल्पना है... या मेरा पागलपन?

अकेले बैठा-बैठा खुद से बाते करता हूँ,
ख्यालों में तेरे अक्सर मैं खोया रहता हूँ।
हर चेहरे में सिर्फ़ तू ही नज़र आती है,
हर रास्ते की मंजिल तू ही मुझे लगती है।
क्या ये मेरी कल्पना है... या मेरा पागलपन?

अकेले सफर में साथ तेरा लगता है,
दिल मेरा आजकल ज़रा तेज धड़कता है।
साँसे मेरी जाने क्यों कभी-कभी थम सी जाती है,
कानों में मेरे तेरी वो मीठी आवाज़ सुनाई देती है।
 क्या ये मेरी कल्पना है... या मेरा पागलपन?

अगर ये कल्पना है तो इसे कल्पना ही रहने दो,
  तुम सही तुम्हारी यादों को ही रहने दो।

Profile_Utkarsh_Jain

Comments

Popular posts from this blog

मैं वहीं पर खड़ा तुमको मिल जाऊँगा। डा. विष्णु सक्सेना।

मैं वहीं पर खड़ा तुमको मिल जाऊँगा जिस जगह जाओगे तुम मुझे छोड़ कर। अश्क पी लूँगा और ग़म उठा लूँगा मैं सारी यादों को सो जाऊंगा ओढ़ कर ।। जब भी बारिश की बूंदें भिगोयें तुम्हें सोच लेना की मैं रो रहा हूँ कहीं। जब भी हो जाओ बेचैन ये मानना खोल कर आँख में सो रहा हूँ कहीं। टूट कर कोई केसे बिखरता यहाँ देख लेना कोई आइना तोड़ कर। मैं वहीं पर खड़ा तुमको....... रास्ते मे कोई तुमको पत्थर मिले पूछना कैसे जिन्दा रहे आज तक। वो कहेगा ज़माने ने दी ठोकरें जाने कितने ही ताने सहे आज तक। भूल पाता नहीं उम्रभर दर्द जब कोई जाता है अपनो से मुंह मोड़ कर। मैं वहीं पर खड़ा तुमको...... मैं तो जब जब नदी के किनारे गया मेरा लहरों ने तन तर बतर कर दिया। पार हो जाऊँगा पूरी उम्मीद थी उठती लहरों ने पर मन में डर भर दिया। रेत पर बेठ कर जो बनाया था घर आ गया हूँ उसे आज फिर तोड़ कर। मैं वहीं पर खड़ा तुमको....... ~ डा. विष्णु सक्सेना ।

पीयूष मिश्रा की कुछ कविताएं। पीयूष मिश्रा।

Includes :- One Night Stand... क्या नखरा है यार... कुछ इश्क किया कुछ काम किया। कौन किसको क्या पता... अरे, जाना कहां है...? °One Night Stand... खत्म हो चुकी है जान, रात ये करार की, वो देख रोशनी ने इल्तिज़ा ये बार बार की। जो रात थी तो बात थी, जो रात ही चली गयी, तो बात भी वो रात ही के साथ ही चली गयी। तलाश भी नही रही, सवेरे मकाम की, अंधेरे के निशान की, अंधेरे के गुमान की। याद है तो बस मुझे, वो होंठ की चुभन तेरी, याद है तो बस मुझे, वो सांस की छुअन तेरी। वो सिसकियों के दौर की महक ये बची हुई, वो और, और, और की, देहक ये बची हुई। ये ठीक ही हुआ...

धीरे धीरे समय निकलता जा रहा है, हाथ से रेत की तरह फिसलता जा रहा है।

धीरे धीरे समय निकलता जा रहा है, हाथ से रेत की तरह फिसलता जा रहा है, कोई न कोई याद बनाते जा रहा हूँ लिख-लिखकर इन्हें सजाते जा रहा हूँ। यादो का भी नाटक हो रहा है, कुछ यादें याद करके दुख हो रहा है, तो